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ज्ञान के मंदिरों में सुधार की दरकार

अगर भारत को एक बार फिर से शिक्षा के शक्ति-केंद्र के रूप मे स्थापित होना है तो नींव पर ध्यान देना होगा। यानी नर्सरी-केजी से 12वीं तक। यहां भी सबसे पहले सरकारी स्कूलों पर ध्यान देने की दरकार है।

यह कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका उच्च शिक्षा में हर साल दस लाख से अधिक विदेशी छात्रों को प्रवेश देकर अग्रणी बना हुआ है। इस सूची में शीर्ष पर चीन और भारत के छात्र हैं। विदेशी छात्रों की अमेरिका की ओर दौड़ भी इसलिए हैरान नहीं करती क्योंकि विश्व स्तर पर इसे अभी भी सार्वजनिक और निजी संस्थानों में स्नातक और स्नातक अध्ययन में प्रीमियम आपूर्तिकर्ता के तौर पर देखा जाता है। छात्रों की कुल आबादी का छह प्रतिशत विदेशों से है। यह अपने आप में उत्कृष्टता की गवाही है। यह दूसरों के लिए ईर्ष्या का सबब भी हो सकता है। सालाना तौर पर यह अनुमान लगाया जाता है कि विदेशी छात्र अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 38 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करते हैं। यह न तो कोई छोटी रकम है और न नजरअंदाज करने वाली राशि। ऐसा नहीं है कि संयुक्त राज्य अमेरिका को छात्रों की भर्ती के मामले में चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता। स्पर्धा केवल यूरोप और उत्तरी अमेरिका के उत्कृष्टता केंद्रों से नहीं है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और सिंगापुर तथा ताइवान जैसे देशों ने विदेशी छात्रों को विज्ञान और हाई-टेक सेक्टर में खींचना शुरू किया है। यह पश्चिम को कड़ी टक्कर है। अपेक्षाकृत कम महंगी ट्यूशन फीस और निकटता ने एशिया प्रशांत के केंद्रों को शैक्षिक रूप से आकर्षक बना दिया है। वे दिन गए जब भारत से कोई छात्र केवल मास्टर्स या पीएचडी के लिए विदेशी डिग्री हासिल करता था। आज हाई स्कूल करने वाले छात्र भी अगली डिग्री विदेश से हासिल करने के इच्छुक हैं। लिहाजा वैश्विक संस्थानों में यह स्पर्धा बेहद गहन हो चली है। भारत जैसे देश के लिए युवा दिमागों के पलायन को प्रतिभा पलायन के रूप में देखना एक बात और वृत्ति है। उनकी वापसी की उम्मीद भी बहुत कम रहती है। लेकिन समय-समय पर इस बात पर भी विचार होता है कि एक समय ज्ञान केंद्र के रूप में जाना और देखा जाने वाला देश भारत अब इस क्षेत्र में एक प्रमुख शक्ति क्यों नहीं रह गया है। अनुमान है कि भारत में लगभग 1000 विश्वविद्यालय और लगभग 50,000 कॉलेज हैं। लेकिन इनमें से मुट्ठी भर संस्थान भी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग्स में जगह नहीं बना पाते। इसका कारण समग्र परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखने का अभाव है। कई बार उत्कृष्टता को स्वर्ग से उतरी चीज के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी रही है। हालांकि पिछले कई वर्षों में वंचितों और गैर-विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए भी उच्च शिक्षा के दरवाजे खोलने पर बहुत ध्यान दिया गया है। सही भी है। मगर अभी कई दरारें हैं जिनको भरना जरूरी है। अगर भारत को एक बार फिर से शिक्षा के शक्ति-केंद्र के रूप मे स्थापित होना है तो नींव पर ध्यान देना होगा। यानी नर्सरी-केजी से 12वीं तक। यहां भी सबसे पहले सरकारी स्कूलों पर ध्यान देने की दरकार है। अमेरिका जैसे कई विकसित देश अपने पब्लिक स्कूलों पर गर्व करते हैं जो अंततः उच्च गुणवत्ता वाले छात्र प्रदान करते हैं और जिनकी तलाश में विश्वविद्यालय रहते हैं। मगर नींव का मजबूत होना किसी भी शिखर पर पहुंचने के लिए जरूरी है।

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