पुस्तक ‘काया’ के लेखक गुरुप्रसाद कागिनेले और अनुवादक नारायण शंकरन / Courtesy: Guruprasad Kaginele, Narayan
जिस दौर में शारीरिक पूर्णता की चाह प्रवासी पहचान (डायस्पोरा आइडेंटिटी) की जटिलताओं से टकरा रही है, उस समय बहुत कम उपन्यास हैं जो इस टकराव को उतनी तीक्ष्णता और भावनात्मक गहराई से पकड़ पाते हैं, जितनी कन्नड़ साहित्य की चर्चित कृति ‘काया’ (Kaayaa) में दिखाई देती है। अब इस उपन्यास का सशक्त अंग्रेज़ी अनुवाद वैश्विक पाठकों के सामने है।
मैनहैटन की हाई-प्रोफाइल एस्थेटिक मेडिसिन इंडस्ट्री की पृष्ठभूमि में रचा गया यह उपन्यास डॉ. भीम मलिक की कहानी कहता है—एक सेलिब्रिटी प्लास्टिक सर्जन, जिसे लगता है कि उसने न केवल चेहरों और शरीरों को, बल्कि अपनी पूरी अमेरिकी ज़िंदगी को भी परफेक्ट ढंग से गढ़ लिया है। लेकिन एक नैतिक और मानसिक संकट उसके इस सावधानी से बनाए गए संसार को तोड़ देता है और उसकी पहचान पर सवाल खड़े कर देता है।
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‘काया’ के रचनाकार और अनुवादक से बातचीत
न्यू इंडिया अब्रॉड ने इस उपन्यास के लेखक, आपातकालीन चिकित्सा विशेषज्ञ और पुरस्कार विजेता लेखक गुरुप्रसाद कागिनेले, और इसके अंग्रेज़ी अनुवादक नारायण शंकरन से विशेष बातचीत की।
डायस्पोरा, लेकिन ‘अपनापन’ नहीं
गुरुप्रसाद कागिनेले के अनुसार, काया प्रवासी जीवन में “अपनापन” खोजने की कहानी नहीं है। डॉ. मलिक और उनकी पत्नी पहले से मानते हैं कि वे अमेरिकी समाज में पूरी तरह घुल-मिल चुके हैं। कर्नाटक के एक छोटे कस्बे से निकलकर मैनहैटन तक पहुंचे मलिक को लगता है कि उसने अपने भारतीय अतीत से पूरी तरह नाता तोड़ लिया है।
लेकिन उपन्यास में भारतीय पहचान बाद में लौटती है—न तो नॉस्टैल्जिया के रूप में और न ही खोने के एहसास की तरह—बल्कि एक नए तरह के ‘री-इन्वेंशन’ के रूप में।
पुस्तक का कवर पेज / image providedसुंदरता: निजी चुनाव या उपभोक्ता दबाव?
लेखक का मानना है कि भारत में लंबे समय तक सुंदरता को आम लोगों की ज़रूरत नहीं माना गया। यह फिल्मी सितारों तक सीमित थी। लेकिन उपभोक्तावाद के फैलाव ने तस्वीर बदल दी है। अब एयरहोस्टेस से लेकर रिटेल स्टाफ तक, हर पेशे में ‘अच्छा दिखना’ अनकहा दबाव बन चुका है।
उपन्यास अमेरिका में इसी प्रवृत्ति को उसके चरम रूप में दिखाता है, जहां बॉडी एन्हांसमेंट रोज़मर्रा की, सामान्य और लगभग निर्विवाद प्रक्रिया बन चुकी है।
एक डॉक्टर का अनुभव, एक गहरी छवि
गुरुप्रसाद बताते हैं कि काया का बीज उनके मेडिकल अनुभव से उपजा। एक टर्मिनल कैंसर पीड़ित युवती—जिसने व्यापक कॉस्मेटिक सर्जरी कराई थी—की छवि उन्हें भीतर तक झकझोर गई। बीमारी से शरीर नष्ट हो रहा था, लेकिन सर्जरी से बदले गए अंग जस के तस थे।
“उस पल मुझे लगा कि इंसान द्वारा बनाई गई सुंदरता, खुद शरीर से भी ज़्यादा टिकाऊ हो सकती है,” वे कहते हैं।
नैतिकता, सहमति और ‘ग्रे ज़ोन’
उपन्यास एस्थेटिक मेडिसिन को जबरदस्ती या नियंत्रण के औज़ार के रूप में नहीं, बल्कि मरीज के चुनाव के रूप में देखता है। फिर भी यह सवाल उठाता है—क्या हर चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र होता है? कॉस्मेटिक सर्जरी में चिकित्सकीय स्पर्श और संवेदनात्मक स्पर्श के बीच की धुंधली रेखा, सहमति की सीमाएं और निजी नैतिक फैसलों का सार्वजनिक न्याय—ये सभी सवाल उपन्यास के केंद्र में हैं, बिना किसी फैसले को थोपे।
कन्नड़ से अंग्रेज़ी तक की यात्रा
अनुवादक नारायण शंकरन बताते हैं कि काया का अनुवाद सामान्य कन्नड़ साहित्य से अलग चुनौती था। पात्र खुद मानते हैं कि वे अपनी जड़ों से कट चुके हैं, इसलिए भाषा में भी पारंपरिक कन्नड़ रंग कम है। यही कारण है कि अंग्रेज़ी Kaayaa कई मायनों में एक मौलिक अंग्रेज़ी उपन्यास की तरह पढ़ी जाती है—हालांकि जैसे ही पात्रों का भ्रम टूटता है, उनकी सांस्कृतिक और भावनात्मक परतें स्वाभाविक रूप से उभर आती हैं।
आखिर में क्या कहती है ‘काया’?
लेखक किसी निष्कर्ष या नैतिक उपदेश से बचते हैं। काया बस एक आईना दिखाती है—जहां सुंदरता, शरीर, इच्छा, पहचान और समय के खिलाफ मानव संघर्ष एक-दूसरे से टकराते हैं। यह एक आधुनिक, शहरी और मनोवैज्ञानिक उपन्यास है, जो यह सवाल छोड़ देता है कि क्या इंसान सच में खुद को पूरी तरह गढ़ सकता है—या कुछ परतें ऐसी होती हैं, जिन्हें कोई सर्जरी नहीं बदल सकती।
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