भारत सरकार देश की सबसे पुरानी आंतरिक सुरक्षा चुनौती माओवादी विद्रोह को खत्म करने के लिए निर्णायक सैन्य अभियान चला रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने 2026 की शुरुआत तक माओवादियों का "समूल नाश" करने का ऐलान किया है।
कब और कैसे शुरू हुआ विद्रोह?
माओवादी आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई, जब गरीब किसानों ने जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाए। भाले, तीर-कमान से लैस इन ग्रामीणों ने ज़मीन की माँग को लेकर विद्रोह किया। हालांकि यह शुरुआत जल्द ही दबा दी गई, लेकिन इससे देशभर में सशस्त्र विद्रोह की चिंगारी फैल गई। इन्हीं घटनाओं से "नक्सली" शब्द की उत्पत्ति हुई।
1980 के दशक में विद्रोही मध्य भारत के जंगलों में पहुंच गए, जहां छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका आज माओवादी गतिविधियों का गढ़ बना हुआ है। यहां आदिवासियों के बीच ज़मीन के अधिकार और वन उपज के दामों को लेकर माओवादियों ने समर्थन जुटाया।
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चरम पर कब पहुंचे माओवादी?
2004 में दो प्रमुख गुटों के विलय से बना कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) आंदोलन का टर्निंग प्वाइंट बना। पार्टी का उद्देश्य था – "जनता की सरकार" बनाना और मौजूदा तंत्र को सशस्त्र संघर्ष के ज़रिए उखाड़ फेंकना।
2000 के दशक के मध्य में माओवादी देश के एक-तिहाई हिस्से में सक्रिय थे। "रेड कॉरिडोर" में उन्होंने समानांतर प्रशासन चला रखा था – स्कूल, अस्पताल, और जन अदालतों के जरिए शासन। 2010 में छत्तीसगढ़ के जंगलों में एक घात में 76 जवानों की हत्या और 2013 में कांग्रेस के पूरे राज्य नेतृत्व का सफाया — इन हमलों ने माओवादियों की ताकत को दिखाया।
अब क्या स्थिति है?
2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे देश की "सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती" बताया था। इसके बाद केंद्र सरकार ने बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों को तैनात किया। हालांकि, मानवाधिकार संगठनों ने ग्रामीणों के बीच भारी नुकसान पर चिंता जताई।
मोदी सरकार के आने के बाद कार्रवाई और तेज़ हुई। अब माओवादियों की ताकत बुरी तरह टूट चुकी है। छत्तीसगढ़ पुलिस के अनुसार, माओवादियों की ताकत घटकर 1,000 से 1,200 लड़ाकों तक रह गई है।
2010 से 2023 तक आम नागरिक और जवानों की मौतों में 85% की गिरावट आई है। माओवादी हमले 1,900 से घटकर 374 रह गए। सिर्फ 2023 में 287 माओवादी मारे गए और 2024 के पहले तीन महीनों में 100 से ज्यादा।
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