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दुर्भाग्य के सैनिक और टकराव का एक त्रासद पहलू

लोग अपनी चाहतों के चलते कपट-पाश में फंस जाते हैं और किसी भी गुलाबी तस्वीर पर यकीन कर लेते हैं। कुल मिलाकर सारा माजरा लोगों की समझदारी, तंत्र की होशियारी और भर्ती करने वालों की जिम्मेदारी पर आकर टिक जाता है।

भारत अब 'दुर्भाग्य के उन सैनिकों' की वापसी की उलझन में है। / Image : NIA

रूस-यूक्रेन युद्ध की अग्रिम पंक्ति में भारतीय युवाओं के एक समूह में से कम से कम एक की मौत और अन्यों के वापस लौटने की बेताबी की खबर फिर से याद दिलाती है कि टकराव के हालात में जीवन कैसा होता है। संघर्षों की वास्तविकता क्या है। खास तौर से 'आउटसोर्सिंग' के सहारे की जाने वाली जंग में। 

जिस वैगनर समूह ने कथित तौर पर पिछले वर्षों में यूक्रेन के साथ अधिकांश लड़ाई की थी उसके बारे में अब कहा जाता है कि यह अतीत की बात हो गई है क्योंकि उसके शीर्ष सैन्य कमांडर की एक हवाई दुर्घटना में मौत हो चुकी है। अगर इस कहानी पर भरोसा किया जाए तो। मगर रूसी मोर्चे पर भारतीय युवाओं के वर्तमान संदर्भ में वैगनर मशीनरी एक तरफ रखते हैं। 

जहां तक ​​भारत का सवाल है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रूस अपनी दो साल की आक्रामकता को सही ठहराने के लिए किसे इस्तेमाल कर रहा है। तथ्य यह है कि भारतीय स्वयंभू सैनिकों को सुरक्षा बलों के सहायक कर्मचारियों के रूप में काम करने के बहाने लालच दिया गया था। कहा जाता है कि वे रूस के नियमित सैनिकों के साथ खंदकों में यूक्रेन के हमले का सामना कर रहे थे या कर रहे हैं।

भाड़े के सैनिकों की इन बातों के सामने आने से 1980 के दशक के 'सोल्जर्स ऑफ फॉर्च्यून' की यादें ताजा हो जाती हैं। खासकर दक्षिण पूर्व एशिया के जंगलों में घिरे कैदियों को छुड़ाने या मध्य और लैटिन अमेरिका में ड्रग माफियाओं से मुकाबला करने के लिए भाड़े के सैनिकों को बुलाने वाले विज्ञापनों की। कभी-कभी खुफ़िया एजेंसियों में दुष्ट तत्वों ने फ्रीलांस ठगों की भर्ती करने का बीड़ा उठाया है। लेकिन यह सारा आकर्षण, जिसमें वार्षिक गुप्त सम्मेलन भी शामिल थे, तब फीका पड़ गया जब देशों को इस तरह के मुद्दों से निपटने का बेहतर तरीका मिल गया।

भारत अब 'दुर्भाग्य के उन सैनिकों' की वापसी की उलझन में है। जाने या अनजाने उन लोगों ने खुद को मुसीबत में डाला जो यह नहीं जानते थे कि मौत के सौदागर पैसा कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसे में दुर्भाग्य के सैनिकों की भर्ती करने वालों पर भी सारा दोष मढ़ना सही नहीं है। वे वैध यात्रा दस्तावेजों के साथ रूस जाने में कैसे कामयाब रहे?

इस परिदृश्य और इन किस्सों के बीच भारत सरकार को गहन जांच के लिए कदम उठाना चाहिए। जब चीजें बिगड़ जाती हैं तो मौत या हत्या पर हंगामा करना आम हो गया है। मगर यह बात केवल दुर्भाग्य के सैनिकों तक सीमित नहीं है। यह बात उन युवाओं के लिए भी है जो किसी सुनहरे सपने के साकार होने की आस में दूर देश जाते हैं और आखिर में खुद को धोखे का शिकार पाते हैं। वे काम, नौकरी या किसी अन्य भरोसे पर अपना देश छोड़े जाते हैं मगर मुसीबत में फंस जाते हैं। फिर उनकी त्रासद दास्तानें कभी दुनिया के सामने आती हैं या अक्सर दुर्भाग्य या शोषण की बेरहम गलियों में दफ्न होकर रह जाती हैं। 

खैर, इन हालात में सरकारें जो कर सकती हैं उसकी सीमाएं हैं। इसमें विदेशों में दूतावास और वाणिज्य दूतावास शामिल हैं। खासकर तब जब लोग यूरोप या अमेरिका में जीवन के तथाकथित बसर के लिए खतरनाक और स्पष्ट रूप से अवैध यात्रा करने के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं। लोग अपनी चाहतों के चलते कपट-पाश में फंस जाते हैं और किसी भी गुलाबी तस्वीर पर यकीन कर लेते हैं। कुल मिलाकर सारा माजरा लोगों की समझदारी, तंत्र की होशियारी और भर्ती करने वालों की जिम्मेदारी पर आकर टिक जाता है।

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