भारतीयों के साथ नस्लवादी हिंसा या घृणा अपराध कोई ऐसा विषय नहीं है जो यदा-कदा सामने आता हो। यह आए दिन की बात है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा या अन्य देश में भारतीय नस्लीय आक्रोश का शिकार बनते ही रहते हैं। घृणा-जनित लहर या आक्रोश में हत्या या मौत इस हिंसा का चरम है। इन मामलों को संबद्ध सरकारों द्वारा गंभीरता से लिया भी जाता है लेकिन बावजूद इसके घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई हो, ऐसा नहीं लगता। बल्कि हाल ही में आयरलैंड ने सबका ध्यान खींचा है जहां नस्लवादी हिंसा का घृणित रूप दिखाई दिया है। एक महीने से भी कम में आयरलैंड में भारतीयों के साथ चार घृणा अपराध हुए हैं। एक घटना में महज छह साल की बच्ची नाबालिगों के झुंड का शिकार हुई। किशोरवय उत्पातियों ने गालियां देते हुए उस छोटी बच्ची से 'भारत वापस' जाने को कहा जो सरहदों का फर्क नहीं जानती होगी। उसे पीटा भी गया। आयरलैंड में अब भारतीय समुदाय दहशत में है और हुकूमत सकते में। असुरक्षा का भाव ऐसा है कि वहां भारत की स्वतंत्रता दिवस से जुड़ा समारोह अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया है। समारोह तो देर-सवेर हो ही जाएगा लेकिन भय और असुरक्षा का जो माहौल भारतीयों में है उससे मुक्ति मिलने में न जाने कितना समय लगेगा। और अगर दुर्भाग्य से इस बीच कोई और घटना हो गई तो चिंता का दायरा और उम्र दोनों बढ़ जाएंगे। कमोबेश यही स्थिति हर उस जगह और देश की है जहां भारतवंशी नस्लीय हिंसा से जूझ रहे हैं।
विदेशी धरती पर नस्लीय हिंसा से जुड़ी तमाम घटनाएं जहां सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा करती हैं वहीं घृणा अपराध के आंकड़े डराते हैं। भारत सरकार की ओर से अप्रैल 2025 में जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच सालों में विदेशों में 91 भारतीय छात्रों पर हिंसक हमले हुए। इनमें 30 की मौत हो गई। सबसे ज्यादा हमले कनाडा में हुए जहां 16 भारतीय मारे गए। इसके बाद रूस और ब्रिटेन का नंबर है। मार्च 2025 में भारत के विदेश मंत्रालय ने बताया कि 2022 में 4, 2023 में 28, और 2024 में 40 भारतीय छात्रों पर हमले दर्ज किए गए। वर्ष 2021 में भारतीयों पर 29 हमले और हत्याएं हुईं, जो 2022 में बढ़कर 57 और 2023 में 86 हो गईं। घृणा अपराध का शिकार छात्र ही नहीं, हर उम्र के लोग हुए हैं। अमेरिका भी इस मामले में अपवाद नहीं है। यहां बसी एक बड़ी प्रवासी आबादी नस्लीय हिंसा की चुनौती झेल रही है और उनके आस्था स्थल घृणा का जब-तब शिकार हो ही रहे हैं।
बहरहाल, किसी बड़े प्रयास या कदम से नस्लीय हिंसा पूरी तरह खत्म हो जाएगी, ऐसा सोचना अति आशावाद हो सकता है लेकिन ऐसे कुछ जतन तो सरकार और समाज के स्तर पर किये ही जा सकते हैं कि नस्लीय हिंसा में कमी आए और प्रवासियों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़े। इस दिशा में उस भ्रांति को तोड़ना एक सार्थक और सकारात्मक कोशिश हो सकती है जिसमें राजनीतिक लाभ के लिए सियासी दल प्रवासियों को अतिक्रमणकारी और स्थानीय आबादी के अधिकारों के लिए खतरा बताते हैं। प्रवासियों के प्रति इस तरह का विष-वमन चुनाव के समय अधिक होता है और मुद्दा भी बनाया जाता है। अमेरिका में भी ऐसा हुआ है। हिंसा किसी भी तरह की हो, उसका खात्मा सरकार और समाज मिलकर ही कर सकते हैं।
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