दिवाली सेलीब्रेशन (प्रतीकात्मक तस्वीर) / pexels
भारत के हिमालयी राज्यों हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में दिवाली एक महीने बाद मनाई जाती है। इसे स्थानीय भाषा में ‘बूढ़ी दिवाली’ कहा जाता है। जब देशभर में दीपावली के दीप बुझ चुके होते हैं, तब हिमाचल के कुल्लू, सिरमौर, मंडी और उत्तराखंड के जौनसार बावर, टिहरी और उत्तरकाशी क्षेत्रों में दिवाली की तैयारियां शुरू होती हैं। इस वर्ष यह पर्व 20 से 26 नवंबर के बीच मनाया जाएगा। यह पर्व केवल तिथियों में देरी के कारण नहीं, बल्कि अपनी लोककथाओं, पर्यावरण-संवेदनशील परंपराओं और सांस्कृतिक महत्व के कारण भी खास है।
बूढ़ी दिवालीः पुरानी मान्यताएं
बूढ़ी दिवाली के पीछे कई मान्यताएं प्रचलित हैं। सबसे लोकप्रिय कथा के अनुसार जब भगवान श्रीराम रावण का वध कर अयोध्या लौटे, तब उनकी विजय और दीपोत्सव का समाचार हिमालय के इन दुर्गम इलाकों तक देर से पहुँचा। उस विलंबित ख़ुशी को मनाने की परंपरा ही बूढ़ी दिवाली बन गई। कुछ क्षेत्रों में इसे देवताओं की वापसी से भी जोड़ा जाता है—यह समय देवताओं को गांवों में आमंत्रित कर नृत्य-गान और सामूहिक भोज के साथ उनका स्वागत करने का होता है।
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त्योहार के पीछे कृषि भी बड़ी वजह
हिमाचल और उत्तराखंड के कई गांवों में यह त्योहार कृषि से भी जुड़ा है। नवंबर तक धान और मक्के की फसल कट जाती है, लोग खेती के कार्यों से फुरसत पाते हैं और गांव में उत्सव का माहौल बन जाता है। पर्व के दिनों में लोग पारंपरिक वेशभूषा पहनते हैं, ‘ढोल-दमाऊ’ की थाप पर रासो, झैंता और हारुल नृत्य करते हैं। शाम को लोग मशालें जलाते हैं, रस्साकशी जैसे पारंपरिक खेल खेलते हैं और सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं। यहां पटाखों की जगह भीमल की लकड़ियों की मशालें जलाई जाती हैं, जो इसे पर्यावरण के अनुकूल पर्व बनाती हैं।
बूढ़ी दिवाली केवल देरी से मनाई जाने वाली दीपावली नहीं है, यह हिमालयी संस्कृति की गहराई, लोगों की आस्था और सामुदायिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि त्योहार केवल एक तिथि पर नहीं, बल्कि भावनाओं, परंपराओं और आपसी मेल-मिलाप पर आधारित होते हैं। बूढ़ी दिवाली की मशालें न केवल अंधकार पर प्रकाश की जीत का संदेश देती हैं, बल्कि यह बताती हैं कि परंपरा और आधुनिकता के संगम में भी संस्कृति की ज्योति जलती रहनी चाहिए।
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