जिसके पास अब घर नहीं है, वह आगे कभी घर नहीं बनाएगा,
जो भी अब अकेला है, वह लम्बे समय तक अकेला ही रहेगा,
जागता रहेगा, पढ़ता रहेगा,
लम्बे पत्र लिखता रहेगा, और जब तक पत्ते उड़ रहे होंगे,
बेचैनी से सड़कों पर इधर-उधर घूमता रहेगा।
यह रिल्के की एक कविता का अंश है। कविता ऐसी जैसी कोई कहानी हो। मैं पढ़ती हूं, बाढ़, तूफान, आंधी की खबरें और समाचार देखती हूं। तबाह होते घर, लोगों की चीखें और आदि मंदिर का धंसना मन को बैठा जाता है।
कल्प केदार मंदिर जो भगवान शिव को समर्पित है। अपनी अनूठी कत्यूर शैली की वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। अब तक इस मंदिर का गर्भगृह जमीन से लगभग सात मीटर नीचे था और इसमें स्फटिक शिवलिंग के साथ नंदी की प्रतिमाएं थीं। इसके शिखर पर कालभैरव का मुख उकेरा हुआ था।
सोचती हूं जिसके शिखर पर खुद कालभैरव विराजमान थे, जो स्वयं महाकाल का स्थान हो उसे प्रकृति कैसे नष्ट कर सकती है ? यह नष्ट नहीं हुई। धरती ने इसे अपने गोद में शरण दी है। शायद बचाया है इस जगह की शांति को।
यह नष्ट नहीं, चेतावनी है मनुष्यों को। सुंदरता और सुविधा का आदि होता यह मनुष्य समाज जो सुंदरता को पाने की चाह में इसे नष्ट करता जाता है। और अंत में बेचैनी के सिवा कुछ नहीं पाता…
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