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सशक्तिकरण की कीमत: बिहार की महिलाएं, कल्याण योजनाएं और वादों की राजनीति

बेगूसराय की एक महिला ने कहा कि पहले हम वोट देते थे, अब वोट मांगने वाले हमें देते हैं।

(बाएं से) नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव / Wikimedia commons and Tejashwi Yadav via Facebook

बिहार एक बार फिर ऐसे चुनाव में उतर रहा है जो विचारों की नहीं, बल्कि वादों की बोली की तरह दिखता है और इस बार सबसे अहम बोली लगाने वाले मतदाता हैं महिलाएं।

पिछले कुछ वर्षों में बिहार की महिलाओं ने राज्य की राजनीति का गणित चुपचाप बदल दिया है। अब वे पुरुषों से ज्यादा वोट डालती हैं, सरकार की स्वयं सहायता समूह योजनाओं का अनुभव रखती हैं और रोजमर्रा की चीजों की कीमत को नारों से ज्यादा गंभीरता से तौलती हैं। सभी राजनीतिक दल यह जानते हैं इसलिए इस बार का चुनावी नैरेटिव लगभग पूरी तरह राहत, नकद ट्रांसफर और सब्सिडी की भाषा में लिखा गया है।

लेकिन इस सब कल्याण के शोर के पीछे एक सख्त सच्चाई है कि बिहार की वित्तीय स्थिति अब इस उदारता का बोझ नहीं उठा सकती।

नीतीश कुमार और भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए इस चुनाव को ‘हक नहीं, सशक्तिकरण’ के एजेंडे पर लड़ रहा है। उनका प्रमुख वादा है - एक करोड़ लखपति दीदी बनाना यानी स्वयं सहायता समूहों और लोन के जरिए महिलाओं को स्वरोजगार के रास्ते पर लाना। एनडीए के घोषणा पत्र में लड़कियों को पीजी तक मुफ्त शिक्षा, 125 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 5 लाख का स्वास्थ्य बीमा और महिलाओं के नाम के साथ 50 लाख नए घर को शामिल किया गया है।

दूसरी तरफ तेजस्वी यादव और कांग्रेस का महागठबंधन कह रहा है कि अभी पैसा लो। उनकी ‘माई बहिन मान योजना’ में 2,500 मासिक भत्ता, सरकार बनने पर 30,000 का एकमुश्त ट्रांसफर और जीविका दीदियों के लिए 30,000 की स्थायी नौकरी का वादा है। इसके साथ ही 500 में गैस सिलेंडर, जमीनहीन महिलाओं को मुफ्त प्लॉट और ब्याज मुक्त लोन जैसे आकर्षक ऑफर भी शामिल हैं।

दोनों गठबंधन अपनी भाषा में एक ही बात कह रहे हैं ‘सशक्तिकरण के नाम पर सब्सिडी’।

वित्तीय पृष्ठभूमि जिसे कोई नहीं छेड़ता

PRS Legislative Research की State of State Finances 2025 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के राज्य सरकारें अपने राजस्व का 62% हिस्सा वेतन, पेंशन और ब्याज में खर्च करती हैं और करीब 9% सब्सिडी पर। इसका मतलब है कि विकास कार्यों के लिए पैसा लगभग नहीं बचता। रिपोर्ट यह भी बताती है कि महिलाओं के लिए नकद सहायता योजनाएं चलाने वाले राज्यों की संख्या 2022-23 में 2 से बढ़कर 2025-26 में 12 हो गई है जिन पर कुल खर्च 1.68 लाख करोड़ है। यह भारत के GDP का लगभग 0.5% है। इनमें से आधे राज्य पहले से ही घाटे में चल रहे हैं। यानी वे उधार लेकर कल्याण कर रहे हैं।

बिहार की वित्तीय स्थिति तो और कमजोर है। राज्य की आधी से ज्यादा आमदनी केंद्र सरकार से मिलने वाले ट्रांसफर पर निर्भर करती है। इसलिए हर मुफ्त सुविधा भविष्य के निवेश को खा रही है। RBI ने 2024 की रिपोर्ट में साफ कहा है कि महिलाओं, युवाओं और किसानों के लिए बढ़ता नकद खर्च राज्यों के बजट पर भारी दबाव डाल सकता है।

जब अर्थशास्त्र टकराता है राजनीति से

अगर महागठबंधन का 2,500 मासिक भत्ता राज्य की आधी महिलाओं तक पहुंचता है तो इसका सालाना खर्च 60,000 करोड़ से ऊपर होगा। यह बिहार के पूरे बजट का करीब 20% है। एनडीए की मुफ्त राशन, बिजली और स्वास्थ्य योजनाओं को जोड़ें तो खर्च और बढ़ जाता है।

फिर भी दोनों गठबंधन इसे जरूरी मानते हैं। क्योंकि बिहार की प्रति व्यक्ति आय आज भी राष्ट्रीय औसत का एक-तिहाई है। रोजगार के अवसर बेहद कम हैं। ऐसे में 2,500 रुपये किसी गरीब महिला के लिए राजनीति नहीं, जीवन रेखा है।

अर्थशास्त्री इसे राजकोषीय अनुशासन की कमी कहेंगे लेकिन नेता इसे संवेदनशीलता कहते हैं और सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है।

असली खतरा: विकास की जगह कल्याण

PRS रिपोर्ट कहती है कि खतरा सब्सिडी में नहीं बल्कि उसकी जगह लेने वाले विकास की कमी में है। बिहार में अब सड़कों, सिंचाई और स्कूलों पर पूंजीगत खर्च घट रहा है, जबकि कल्याण योजनाओं का बोझ बढ़ रहा है। तमिलनाडु जैसे राज्यों की कहानी चेतावनी देती है। मुफ्त बिजली और चावल की शुरुआत गरीबों की मदद से हुई थी।
आज वे स्थायी अधिकार बन चुके हैं जिन्हें कोई सरकार छू नहीं सकती। बिहार अगर वही रास्ता अपनाता है तो बिना मजबूत औद्योगिक आधार के उसका मॉडल टिक नहीं पाएगा।

प्रतिनिधित्व का विरोधाभास

विडंबना यह है कि चुनावी घोषणापत्रों में महिलाएं केंद्र में हैं लेकिन उम्मीदवारों की सूची में वे किनारे पर हैं। एनडीए ने 35, महागठबंधन ने 29 महिला प्रत्याशी उतारे हैं। केवल प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने 40% टिकट महिलाओं को देने और शासन सुधार पर फोकस करने की बात कही है।

करुणा बनाम विश्वसनीयता

बिहार जैसे राज्य में जहां महिलाओं की श्रम भागीदारी 10% से भी कम है, उनकी मदद की नैतिक जरूरत से कोई इंकार नहीं। लेकिन दया नीति नहीं हो सकती। जो सरकार उधार लेकर राहत बांटती है वह विकास की नींव को खोखला कर देती है। आज बिहार में महिलाओं के सशक्तिकरण की बहस 2,500 बनाम 2 लाख लोन, 125 यूनिट बनाम 200 यूनिट बिजली के इर्द-गिर्द सिमट गई है। लेकिन सच्चा सशक्तिकरण शिक्षा, सुरक्षा और अवसरों में है, नकद में नहीं है। सब्सिडी पर बना सशक्तिकरण उधार की ईंटों से बना घर है जो एक मौसम तक टिकेगा, पर एक पीढ़ी तक नहीं।

अंतिम विचार

बेगूसराय की एक महिला ने कहा कि पहले हम वोट देते थे, अब वोट मांगने वाले हमें देते हैं। इस वाक्य में विडंबना भी है और सत्ता-संतुलन का बदलता सच भी। अब चुनौती यह है कि अगली सरकार सब्सिडी खत्म न करे, बल्कि उसे स्थायी सशक्तिकरण की सीढ़ी बनाए। महिलाओं का सशक्तिकरण घोषणापत्र तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे नीति का स्थायी हिस्सा बनना होगा तभी बिहार के सपने वादों से निकलकर वास्तविकता में बदलेंगे।

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