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सीता: इस दिवाली ‘चुप्पी’ नहीं, ‘शक्ति’ को करें नमन

सीता समर्पण का नहीं, स्वाधीनता का प्रतीक हैं। वे धरती से जन्मी थीं—किसी वंश की नहीं, स्वयं पृथ्वी की पुत्री।

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हर दिवाली हम भगवान राम की अयोध्या वापसी का पर्व मनाते हैं। अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर न्याय और बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक। लेकिन इसी कहानी में एक और दीपक है, जो हमेशा पृष्ठभूमि में टिमटिमाता रहता है—सीता का। सदियों से उनकी ताकत को मौन समझा गया, उनके धैर्य को आज्ञाकारिता कहा गया। शायद इस दिवाली वक्त है कि हम सीता की कहानी को नए सिरे से देखें—राम की छाया नहीं, बल्कि अपनी शर्तों पर जलती हुई लौ के रूप में।

सीताः आज्ञाकारिता नहीं, प्रतिरोध की प्रतीक
सीता समर्पण का नहीं, स्वाधीनता का प्रतीक हैं। वे धरती से जन्मी थीं—किसी वंश की नहीं, स्वयं पृथ्वी की पुत्री। उन्होंने शक्ति (शक्ति) का सबसे धरातलीय रूप दिखाया, धैर्य, संकल्प और सत्य के प्रति अडिगता। जब उन्होंने राम के साथ वनवास का निर्णय लिया, वह आज्ञा नहीं, एकजुटता का संकेत था। जब रावण ने उनका मनोबल तोड़ने की कोशिश की, उन्होंने शस्त्र नहीं, अपने विश्वास से प्रतिकार किया। और जब समाज ने उनसे दो बार “पवित्रता की परीक्षा” मांगी, उन्होंने अस्वीकार कर दिया। धरती में उनका विलय पलायन नहीं, एक प्रतीकात्मक घोषणा थी, मुझे अपनी पवित्रता साबित नहीं करनी।

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प्रवासी भारतीयों के लिए सीता की कहानी का नया अर्थ
अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए, खासकर महिलाओं के लिए, सीता की कहानी आज भी प्रासंगिक है। हमसे भी कहा जाता है- अच्छे बनो, लेकिन ज़्यादा मुखर नहीं, आधुनिक बनो, लेकिन अपनी जड़ों से दूर नहीं। सीता इसी द्वंद्व की आवाज हैं, जो बताती हैं कि भक्ति और विरोध साथ रह सकते हैं और अपने सत्य पर अडिग रहना ही सच्चा धर्म है।

बे एरिया की आवाज़ें: सीता पर नए दृष्टिकोण
सैन फ्रांसिस्को की कवयित्री एथेना कश्यप, जिनकी कविता संग्रह ‘Sita’s Choice’ सीता से प्रेरित है, कहती हैं, सीता मुझे पृथ्वी की देवी लगती हैं, मां धरती से जन्म लेकर उसी में लौटने वाली। वह याद दिलाती हैं कि हमें अपने रास्ते बदलने की ज़रूरत है। मेरे सास-ससुर के कठिन समय में भी सीता की दृढ़ता प्रेरणा थी। वह बहुत ‘कूल’ थीं—जंगल में रहकर बच्चों का पालन करना, ठीक वैसे ही जैसे हमें यहां अमेरिका में सब संभालना पड़ता है।

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उनकी कविता ‘Sita’s Choice’ में सीता की पीड़ा और आत्म-सम्मान की छवि झलकती है, राम के पास खड़ी सीता, जो अब भी उसके दायित्व का इंतज़ार करती है और धरती मां उसे अपनी बाहों में समेट लेती हैं, जबकि राम का हाथ, खुला और खाली रह जाता है। बे एरिया की संचार विशेषज्ञ पुष्पिता प्रसाद सवाल उठाती हैं, लक्ष्मण रेखा की कहानी रामायण में नहीं थी, इसे 19वीं सदी के एक नाटककार ने जोड़ा। सीता को हमेशा आज्ञाकारी दिखाया गया, जबकि असल में वह दृढ़ निश्चयी थीं। राम ने कहा था, ‘तुम यहीं रहो,’ लेकिन सीता ने कहा, ‘मैं साथ चलूंगी।’ यह आदेश नहीं, निर्णय था।

हिंदू स्पीकर्स ब्यूरो की राजेश्वरी कहती हैं, महर्षि वशिष्ठ ने सीता को राज्य संचालन के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने वैभव छोड़कर वनवास का मार्ग चुना। यह उनका स्वयं का निर्णय था। वेदांत दृष्टिकोण से मोना विजयकर कहती हैं, ‘सीता’ का अर्थ है ‘हल से बनी रेखा’। वह ‘प्रकृति’ का रूप हैं। रावण के बंधन में फंसी सीता, हमारे आत्मा की प्रतीक है, जो माया के मोह में बंध जाती है। उनका राम से मिलन, मोक्ष की प्राप्ति का प्रतीक है।

सीता की अग्नि: घर से शुरू होती मुक्ति
इस दिवाली जब हम दीप जलाएं, तो याद रखें—हर लौ में प्रकाश भी है और ताप भी। प्रकाश राम का है—जो व्यवस्था और सद्गुण का प्रतीक है। लेकिन ताप? वह सीता का है—जो अन्याय को जलाकर राख कर देता है, जो शर्म को शक्ति में बदल देता है। सीता को सम्मान देना मतलब है—हर उस स्त्री का सम्मान जो कभी यह सुन चुकी है कि प्यार पाने के लिए तुम्हें छोटा बनना पड़ेगा। 

इस दिवाली, आइए दीप जलाएं न सिर्फ अंधकार मिटाने के लिए, बल्कि उन आवाज़ों के लिए जो सदियों तक दबाई गईं। सीता की अग्नि हमें याद दिलाती है—मुक्ति यहीं से शुरू होती है, अपने घर से, अपनी कहानियों से, अपने भीतर की देवी से।

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