पाकिस्तान की उथल-पुथल भरी राजनीति के बीच वहां के लोगों को अब जिस आखिरी चीज की जरूरत है वह है सियासत की तस्वीर साफ होना। इसलिए क्योंकि लगभग सभी बड़े खिलाड़ी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। अगर विपक्ष द्वारा एक दूसरे पर भ्रष्ट आचरण और मतदान में धांधली का आरोप लगाए बिना पाकिस्तान में चुनाव प्रक्रिया पूरी होती तो यह खबर बनती। मगर विलंबित घोषणा के कारण जो भ्रम पैदा हुआ उससे स्थापित छवि वाली तस्वीर पूरी हो गई है।
एक तरफ जेल में बैठे इमरान खान ने जीत का दावा किया तो उनके धुर विरोधी नवाज शरीफ ने भी सबसे ज्यादा सीटों वाली पार्टी के नेता बनकर उभरने का खम ठोका। और युवा बिलावल भुट्टो जरदारी को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते जो खासे कमजोर होने पर भी जीत जैसा ही दावा करते दिख रहे हैं।
एक पार्टी के रूप में चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) के सदस्य बड़ी संख्या में निर्दलीय चुनाव लड़कर जीते हैं। लेकिन कायदा ऐसा है कि निर्दलीय तब तक खुद सरकार नहीं बना सकते जब तक कि वे मौजूदा राजनीतिक दलों में से एक या अधिक के साथ गठबंधन नहीं कर लेते। लिहाजा गठबंधन सरकार के लिए पहल करते हुए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (N) का प्रतिनिधित्व करने वाले नवाज शरीफ ने कहा है कि देश को 'भंवर' से बाहर निकालना उनका कर्तव्य है।
लेकिन इमरान खान भी किसी मौके को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। हालांकि पूर्व क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि कैसे आगे बढ़ें क्योंकि राज्य के रहस्य, भ्रष्टाचार और गैरकानूनी विवाह के लिए उन्हें तीन बार जेल की सजा सुनाई गई है। ऐसे में उन्हे करीब 31 साल तक जेल में रहना पड़ेगा। इमरान को लगता है कि PTI के निर्दलीय उम्मीदवारों पर किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने के लिए दबाव नहीं डाला जाएगा।
लेकिन इस पूरे सियासी गुबार और अनिश्चितता के बीच एक बात निश्चित है कि अंतिम फैसला सेना ही करेगी। दोनों ही नेताओं या पार्टियों ने अतीत में सेना के समर्थन से ही सत्ता सुख प्राप्त किया है। पाकिस्तान की आजादी के कोई साढ़े सात दशकों में सीधे तौर पर या दूसरे तरीकों से सेना ने सत्ता का स्वरूप तय किया है। इस यथार्थ के बीच यह सोचना कि सेना या इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के पास कोई और रास्ता है तो वह भ्रम है।
वैसे, 10 फरवरी के टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले संपादकीय के शीर्षक ने पाकिस्तान के सियासी और चुनावी हालात को पूरा तरह खोलकर रख दिया है। शीर्षक था-हू विल विन? हू केयर्स? व्हाय पाक इलेक्शंस डोंट रियली मैटर्स...
बेशक, पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता उन सभी सुधि जनों के लिए चिंता का विषय है जो देख रहे हैं कि दक्षिण एशियाई देश अंतरराष्ट्रीय ऋणों, बढ़ती मुद्रास्फीति, दयनीय विदेशी मुद्रा भंडार और यहां तक कि पारंपरिक दानदाताओं के बढ़ने के कारण आर्थिक संकट में अनिच्छया ही और फंस जाएगा।
यह तर्क भले ही लुभावना लगता हो कि पाकिस्तान में चल रही गतिविधियों पर बात करना वक्त की बर्बादी है मगर तथ्य यह है कि हम एक ऐसे अस्थिर देश को लेकर संवादरत हैं जिसके परमाणु ट्रिगर पर सेना की उंगली रखी हुई है। इसीलिए पाकिस्तान को लेकर बार-बार सोचना पड़ता है। उधर, भारत में कोई भी यह नहीं सोचता कि इस्लामाबाद में नई व्यवस्था के साथ सीमा पार आतंकवाद अतीत की बात हो जाएगी। ऐसे में आंतरिक उग्रवाद के बढ़ने और अफगानिस्तान और ईरान सीमाओं पर भड़के आग के शोलों के बीच पाकिस्तानी सेना और ISI को भारत के साथ नियंत्रण रेखा के पार आगे बढ़ना सुविधाजनक लग सकता है। वहां की सुविधाजनक राजनीति तो यही है।
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
Comments
Start the conversation
Become a member of New India Abroad to start commenting.
Sign Up Now
Already have an account? Login