जो बाइडेन और शी जिनपिंग। यानी दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली नेताओं के लिए सैन फ्रांसिस्को में एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग की 30वीं बैठक का मंच इससे बेहतर अवसर नहीं हो सकता था। एक ऐसा मंच और अवसर जहां दोनों देशों के शिखर नेता राष्ट्र के रूप में एक-दूसरे के सामने आ रही चुनौतियों पर गंभीरता से विचार कर सकते। ऐसा नहीं है कि वाशिंगटन और बीजिंग ने द्विपक्षीय संबंधों में अंततः एक अविश्वसनीय करवट ली हो लेकिन साधारण तथ्य यह है कि दोनों देशों ने पारस्परिक लाभ के लिए आदान-प्रदान के व्यापक मापदंडों को निर्धारित किया है। संचार के रास्ते खुले रखने और परस्पर सैन्य आदान-प्रदान की अनिवार्यता पर सहमति उन देशों के लिए महत्वपूर्ण कदम है जो लंबे समय से तीसरे देशों या मीडिया के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से बातचीत में फंसे हुए हैं। लेकिन शी की 'आक्रामक चमक' केवल अमेरिकी राष्ट्रपति तक ही सीमित नहीं रही। चीनी नेता ने व्यापारिक नेताओं के साथ स्पष्ट और उपयोगी बातचीत की और जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के साथ द्विपक्षीय वार्ता भी की। यह सही है कि शी और किशिदा के पास जूझने के अपने-अपने मसले थे लेकिन अहम यह रहा कि दोनों ने संवाद के लिए समय निकाला। हिंद-प्रशांत देशों के साथ शी की बातचीत में मैक्सिको, पेरू, फिजी और ब्रुनेई के नेताओं के साथ व्यक्तिगत बातचीत शामिल थी। चार घंटे तक चली बाइडन-शी मुलाकात में कुछ निजी पल भी थे। जैसे कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने शी को अपनी पत्नी के लिए जन्मदिन का उपहार ले जाने की याद दिलाई। यही नहीं बाइडेन ने 1985 में अमेरिका की अपनी पहली यात्रा की पृष्ठभूमि में गोल्डन गेट ब्रिज के साथ खड़े युवा शी की अपने सेलफोन में रखी एक तस्वीर दिखाते हुए पुराने दिनों को याद किया और कराया। राष्ट्रपति शी और बाइडेन की मुलाकात को एक साल हो गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन कई मुद्दों पर दूर जा रहे हैं और यह एक वाजिब चिंता यह है कि बीजिंग मॉस्को के करीब आ रहा है। यानी सुधार के बजाय चीजें दूरियां की दिशा पकड़ रही थीं। दूसरी ओर शी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि अमेरिका धीरे-धीरे राष्ट्रपति चुनाव की गहराइयों में उतर रहा है जहां उम्मीदवार यह दिखाने के लिए बयानबाजी पर अतिरिक्त काम करेंगे कि चीन पर कौन 'अधिक सख्त' है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतभेदों के बावजूद राष्ट्रों को एक-दूसरे के साथ बातचीत करनी होगी। इसके साथ ही बातचीत इस अहसास के साथ होनी चाहिए कि यह एकतरफा रास्ता नहीं हो सकता। राष्ट्रपति शी के लिए एशिया प्रशांत या हिंद- प्रशांत क्षेत्र के साथ सहयोग के कई रास्ते तलाशना बिल्कुल ठीक है। लेकिन चीन के नेता को यह भी समझना चाहिए कि इन क्षेत्रों के देशों को भी अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाना होगा, जो बीजिंग के समान न हों ऐसा हो सकता है। जो मेरा है वह मेरा है और जो तुम्हारा है वह भी मेरा है- इससे तो आजकल के अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कोई बात नहीं बनने वाली। विश्व नेताओं को यह महसूस करना चाहिए कि उपदेश देने से पहले सद्गुणों का अभ्यास करना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। यानी कुछ कहने से पहले अपनी गिरेबान में झांक लेना श्रेयस्कर रहता है। इसी में सबका हित है और हो सकता है।
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