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स्नेह के आलंगिन में... साउथ डेकोटा के बैडलैंड में

यह दुनिया इतनी सुंदर है कि मैं क्या कहूं। जितना देखती हूं भीतर से और खाली होती जाती हूं।

बहुत दूर मिल रहे हैं धरती और आसमान... / Tapasya Chaubey

नाजिम हिकमत कहते हैं- सबसे खूबसूरत दिल दूसरों के साथ मिलकर धड़कते हैं। कुछ ऐसे ही मेरा ह्रदय इन पहाड़ो के साथ धड़क रहा था। इस यात्रा का इंतज़ार मैंने कई बरस किया था।

पर वही है न, कुछ यात्राएं अपना साथी अपने तय समय पर ही चुनती हैं। जैसे कि मैक्सिको की यात्रा  ही ले लें। हमने टिकट वगैरह सब बुक कर लिया था मगर बेटे का हाथ टूट गया। यात्रा धरी की धरी रह गई और फिर वहां जाना, जाना ही रहा। साल दर साल बीत गए पर मैं मैक्सिको नहीं देख पाई।

ख़ैर, यह दुनिया इतनी सुंदर है कि मैं क्या कहूं। जितना देखती हूं भीतर से और खाली होती जाती हूं। मन बार-बार प्रकृति और इसके  रचयिता को प्रणाम करता है। कई बार भावुक होता तो कई बार गुनगुनाने लगता है। 

कई बार जगह अपने सम्मोहन में बांध लेती है। मुझे छेड़ती है कि तपस्या रानी इतनी शिद्दत से जब आ ही गई हो तो कुछ पल बैठो मेरे पास। तुम्हे प्यार-दुलार तो करूं। तुम्हारे बालों को मैं अपनी हवाओं से सहला तो लूं। तुम्हारी आंखों को मैं अपने रंगों से सजा तो दूं। तुम्हारी मन की काया को मैं और समृद्ध तो करूं मेरी बच्ची। तुम यूं ही हमसे जुड़ती रहो, जुड़ाती रहो। 

और इस स्नेह से लिपटी मैं, 'साउथ डेकोटा के बैडलैंड' में खड़ी हूं।  इन पहाड़ों पर चढ़ते हुए मैं मुस्कुराते हुए उनसे कहती हूं- देखा मैं आ गई न। ट्रैकिंग से जब कभी सांस फूलने लगती है तो फिर नाजिम साहब याद आते हैं-  जीना, उम्मीद का श्रम है, मेरे प्रिय,  जीना एक गंभीर व्यवसाय है जैसे कि तुमसे प्यार करना...

मेरी बातें सुनकर नटखट हवाओं ने बादलों के साथ मिलकर कुछ बूंदों की झड़ी मुझ पर और इन पहाड़ों पर लगा दी। हम भी अड़े रहें, खड़े मुस्कुराते रहे। वे मुस्कुराती हुई लौट गईं। 

इस यात्रा की यादों के साथ नाजिम साहब की एक कविता का अंश... 

मैं कितना खुश हूं
दुनिया मैं पैदा हुआ
मुझे उसकी रोशनी से 
रोटी से 
उसकी मिट्टी से प्यार है 
माना कि लोगों ने उसका व्यास नाप डाला 
निकटतम इंचों तक 
माना कि यह सूरज का खिलौना है 
पर मेरे लिये यह विशाल है - कल्पनातीत है!

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