अमेरिका के सत्ता प्रतिष्ठान में डोनल्ड ट्रम्प की दूसरी पारी पूरी दुनिया में हलचल का सबब बनकर आई है। इसमें बहुत-कुछ बदल रहा है, बदलने वाला है। सबसे पहले तो राष्ट्रों के परस्पर और वैश्विक संबंध हैं जो कसौटी पर हैं। ट्रम्प के लिहाज से संबंधों का यह पैमाना उस सिद्धांत पर टिका है जो कहता है कि या तो आप हमारे दोस्त हैं, वर्ना दुश्मन। अमेरिका को 'फिर से महान बनाने के लिए' अपनी दूसरी पारी में राष्ट्रपति ट्रम्प ने टैरिफ का जो अस्त्र चलाया है वह न केवल पूरी दुनिया पर भारी पड़ रहा है, अमेरिका को इससे कितना लाभ हो रहा है या होगा इस पर विरोधाभासी मत हैं। मत नदी के दो किनारों की तरह है। एक वर्ग ट्रम्प के कदमों और उनकी कार्यशैली को ऐतिहासिक बता रहा है तो दूसरा वर्ग उसे ऐतिहासिक गलती मान रहा है। जहां तक संबंधों की बात है तो ट्रम्प की इस दूसरी पारी में रिश्ते 'निजी' लाभ पर केंद्रित करने की कोशिश है। कम से कम अमेरिका की ओर से तो यकीनी तौर पर। देश इन नीतियों से फलेगा-फूलेगा या उनका खामियाजा भुगतेगा इसका पता कुछ बरसों बाद चलेगा। लेकिन दुनिया में हलचल मचाने वाला ट्रम्प या यह कार्यकाल अमेरिका में भी भूकंप के हल्के झटकों जैसा अहसास करा रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि रिश्तों का जो नया आधार है, या जो आधार अमेरिका तय कर रहा है क्या वह लंबा टिकने वाला है? क्या वह लंबा टिक सकता है?
बात केवल अमेरिका से किसी एक देश या देशों के साथ रिश्तों की नहीं है। अमेरिका से इतर अन्य देशों के आपसी रिश्तों की भी है। यह सही है कि सभी देशों अपने रिश्ते अपने कुछ लाभ के मद्देनजर तय करते हैं लेकिन एक बड़ा आधार परस्पर लाभ भी होता है। उसमें कम-ज्यादा चलता रहता है। और अब तक दुनिया इसी कम-ज्यादा पर चलती आई है। लेकिन ट्रम्प अपनी नई आधारशिला से अचानक सब बदलना चाहते हैं। कल तक जो भारत अमेरिका के काफी निकट माना जाता था, यहां तक कि जिस नजदीकी से कुछ पड़ोसी और अन्य देश 'जलते' भी थे, वहां आज रिश्तों में खटास पैदा हो गई है। खटास इस कदर बढ़ रही है कि भारत पर अन्य देशों से अपने 'रिश्ते बदलने' का दबाव है। यहां तक कि परोक्ष रूप से पड़ोसियों से भी संबंध 'संशोधित' करने को कहा जा रहा है। कल तक पाकिस्तान को लेकर मौन रहने वाला अमेरिका आज मुखर होकर दुनिया को बता रहा है कि उसके भारत के पड़ोसी से कैसे संबंध हैं। कभी रूस के निकट आने की कोशिश होती है, कभी यूक्रेन के। फिर दोनों से दूरी हो जाती है। चीन को निशाने पर रखकर सारी नीतियां तय करने वाला अमेरिका आज वहां व्यापारिक रास्ते खोजता दिखता है। कुल मिलाकर मित्र और शत्रु के पैमाने पूरी तरह बदल गए हैं।
लेकिन क्या यह सब अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए हो रहा है या व्यापार के लिए। क्या महानता इस तरह वापसी कर सकती है और क्या इस तरह पल-पल बदलने वाली नीतियों में कोई भी व्यापार टिक सकता है। जिस तरह रिश्तों को आकार लेने में वक्त लगता है उसी तरह व्यापार के लक्ष्य साकार होने में भी समय लगता है। लेकिन ट्रम्प तो किसी को समय देने के मूड में ही नहीं हैं। नोबेल की चाहत भी उनके 'उतावलेपन' को ही उजागर कर रही है। लेकिन रिश्तों के साथ ही व्यापार में भी 'उतावलापन' किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
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