यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपना घर छोड़ दिया क्योंकि वह मैट्रिक के बाद की पढ़ाई जारी नहीं रखना चाहता था। 50 साल बाद अब वह शख्स गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देते हुए विश्वविद्यालयों को वित्तपोषित कर रहा है।
वह शख्स एक अनिवासी भारतीय है और कहता है कि वह अपनी आय का एक प्रतिशत से अधिक हिस्सा दान-पुण्य के लिए देता है। वह कहता है- मेरे और मेरे परिवार के गुजारे के लिए मेरी थोड़ी आय ही काफी है।
वह शख्स कोई और नहीं सुरिंदरपाल सिंह ओबेरॉय हैं। आप एक सफल उद्यमी, समाजसेवी और 'सरबत दा भला' ट्रस्ट के संस्थापक हैं। यह ट्रस्ट कई कल्याणकारी कार्यों को वित्तपोषित करता रहा है। ओबेरॉय ने न केवल अकेले ही मध्य पूर्व में लगभग 150 युवाओं को फांसी के फंदे से बचाया बल्कि उनके पुनर्वास का भी प्रबंध किया।
मानव जाति के कल्याण के लिए उनके निस्वार्थ योगदान के सम्मान में इस सप्ताहांत ब्रैम्पटन स्थित विश्व पंजाबी भवन द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। गुरबक्स सिंह मल्ही, जो संयोगवश भारत के बाहर किसी संसद में बैठने वाले पहले 'पगड़ीधारी' सिख बन गए, एक समारोह में मुख्य अतिथि थे, जिसमें भारतीय समुदाय के सदस्यों ने बड़ी संख्या में भाग लिया।
अपनी कहानी सुनाते हुए सुरिंदरपाल सिंह ओबेरॉय ने उन दिनों को याद किया जब उन्होंने अपने गर में विद्रोह कर दिया था और मैट्रिक के बाद की पढ़ाई जारी रखने से इनकार कर दिया था। वे बताते हैं कि मेरे पिता चाहते थे कि मैं आगे पढ़ूं, लेकिन मुझे पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक दिन मैंने अपने माता-पिता से कहा कि मुझे पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे नाराज हो गए। मैंने उनसे कहा कि मैं कुछ अलग करना चाहता हूं।
बकौल श्री ओबेरॉय- जब मैंने घर छोड़कर अपनी दुनिया की तलाश में निकलने का फैसला किया तो मेरी जेब में 600 रुपये थे। मेरे पिता, जो सख्त अनुशासनप्रिय थे, ने मुझे कुछ और पैसे दिए और कहा कि मैं कुछ हासिल करने के बाद ही उन्हें अपना चेहरा दिखाऊं।
दुबई में एक निर्माण परियोजना में मैकेनिक के रूप में काम करने का मौका मिलने से पहले मैंने सड़क किनारे मज़दूरी की। पांच साल बाद जब मैं घर लौटा तो मेरे पिता ने मेरा मजाक उड़ाया और कहा- मैं क्या बन गया हूं- मैकेनिक? यह बात मुझे चुभ गई और मैंने फिर से घर छोड़ दिया। इस बार, मैंने दुबई में अपना काम शुरू किया और कड़ी मेहनत की। ऊपरवाला, सर्वशक्तिमान दयालु था। मेरा निर्माण व्यवसाय फल-फूल गया।
श्री ओबेरॉय कहते हैं कि मेरे जीवन का निर्णायक मोड़ 31 मार्च, 2010 को आया, जब मैंने एक अखबार में पढ़ा कि एक पाकिस्तानी लड़के की मौत के लिए 17 भारतीय लड़कों को मौत की सजा सुनाई गई है। एक ही व्यक्ति की मौत या हत्या के लिए 17 लोगों को फांसी कैसे दी जा सकती है? मेरे दिमाग में खतरे की घंटी बज गई। मुझे यकीन हो गया कि कुछ निर्दोष लड़कों पर ऐसे अपराध के लिए मुकदमा चलाया जा रहा होगा जो उन्होंने किया ही नहीं था।
चूंकि यह बात मेरे दिमाग में थी, इसलिए मैंने कानून प्रवर्तन एजेंसियों, मौत की सजा का सामना कर रहे लड़कों के परिवारों, वकीलों और अन्य लोगों के साथ काम किया। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 17 लड़कों में से केवल तीन ही उस घटना में शामिल थे जिसमें एक पाकिस्तानी लड़के की हत्या हुई थी। मैंने मारे गए पाकिस्तानी लड़के के परिवार को ब्लड मनी (एक तरह से मुआवजा राशि) का भुगतान किया और उन सभी को रिहा करवाकर भारत वापस भेज दिया। वे 14 लोग अच्छी तरह से बस गए हैं, उनके परिवार हैं और वे खुशी-खुशी जीवन जी रहे हैं।
कुल मिलाकर, मैंने पीड़ितों के परिवारों को ब्लड मनी देकर लगभग 150 प्रवासी मज़दूरों या फांसी की सजा का सामना कर रहे कर्मचारियों को रिहा करवाया है। लाभार्थी केवल पंजाबी लड़के ही नहीं थे, बल्कि भारत के अन्य हिस्सों, पाकिस्तान, श्रीलंका और अन्य देशों के भी लड़के थे।
उनका 'सरबत दा भला' संगठन अब वंचित युवाओं को गुणवत्तापूर्ण और सस्ती शिक्षा प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय स्थापित कर रहा है, साथ ही विशेष जरूरतों के लिए विशेष केंद्र भी स्थापित कर रहा है। योग्य लोगों को वृद्धावस्था पेंशन, जरूरतमंद लोगों को मुफ्त राशन, चुनिंदा लोगों को छत और पूरे उत्तर भारत में अत्यधिक सब्सिडी वाले डायग्नोस्टिक सेंटर चलाना, कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जिन्हें वह अपने पैसों से चलाते हैं।
दुबई में भी उनका संगठन जरूरतमंद प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन और खाने के पैकेट उपलब्ध कराता है। भारत में उनका एक बड़ा तंत्र है जो संगठन द्वारा संचालित विभिन्न धर्मार्थ संस्थानों का नियंत्रण और संचालन करता है।
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