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न्यूयॉर्क से प्रयागराज : कुंभ मेला और मेरा अनोखा अनुभव

महाकुंभ मेला देखने और इस अनोखे आयोजन को अपने कैमरे में कैद करने के लिए वसंत पंचमी से पहले मैं न्यूयॉर्क से प्रयागराज के लिए रवाना हुआ था। गंगा-यमुना के संगम पर बिताए गए कुछ पलों और अनुभवों के अंश यहां पेश हैं।

हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन में सीनियर डायरेक्टर मैट मैक्डरमॉट ने हाल ही में कुंभ की यात्रा की। / Image : - mat Mcdermott

27 जनवरी: न्यूयॉर्क से दिल्ली
मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं? दुनिया के बिल्कुल दूसरे कोने में जाकर करीब 40 करोड़ लोगों का हिस्सा बनने के लिए, जो छह हफ्ते तक भारत की दो पवित्र नदियों के संगम में डुबकी लगाते हैं। हैरानी की बात ये है कि यहां पर हर दिन इतने लोग जुटते हैं, जितनी न्यूयॉर्क शहर की कुल आबादी भी नहीं है। दुनिया के लगभग एक-तिहाई हिंदू इस महामेले में शामिल होते हैं।  

मेरे लिए यह यात्रा मोक्ष पाने या पापों का नाश करने के लिए नहीं है, जैसा कि कई लोग मानते हैं। मेरा मानना है कि किसी खास जगह पर पानी में डुबकी लगाने से इन चीजों पर कोई प्रभाव शायद ही पड़ता हो। लेकिन कुंभ का हिस्सा बनने का मेरा कारण बहुत साधारण है। यह विशाल मानवता का एक हिस्सा बनने और आध्यात्मिक परंपरा से फिर से जुड़ने की भावना है। यह एक अभूतपूर्व आयोजन का साक्षी बनने और एक साधारण नागरिक की दृष्टि से इस उत्सव को कैमरे में कैद करने की मेरी जिज्ञासा है।  

29 जनवरी: दिल्ली
कुंभ में जाने को लेकर मन में थोड़ी घबराहट और थोड़ी आशंका है। इस वजह से नहीं कि वह एक भीड़भाड़ वाला, धूल भरा मेला है या हाल ही में वहां हुई भगदड़ की घटना ने मुझे डरा दिया है। मुझे डर है कि कहीं जिस उम्मीद से मैं आया था, कहीं वह अधूरी न रह जाएं। क्या यह अनुभव निराशाजनक होगा? लेकिन जैसा कि बाद में पता चला, ये सारी चिंताएं निराधार थीं।  

31 जनवरी: प्रयागराज
कुंभ मेले के बारे में जो बात बहुत से लोग नहीं जानते, वह यह है कि यहां चलना बहुत पड़ता है। मेला क्षेत्र के जिस स्थान तक वाहन जाते हैं, वहां से संगम तक पहुंचने के लिए एक मील से अधिक की दूरी पैदल तय करनी होती है। दर्जनों अखाड़ों के शिविरों के बीच की दूरी 2 मील से भी अधिक हो सकती है।  मैं हर रोज 8-10 मील तक पैदल चला। मेले में घूमने का और कोई साधन नहीं है इसलिए हर दिन आप सीमित हिस्से को ही देख सकते हैं।  

मेले का अधिकतर हिस्सा किसी आम मेले जैसा लगता है। सड़क किनारे रुद्राक्ष की माला से लेकर खिलौने और बर्तनों तक सब कुछ बिकता है। भीड़ होती है, लेकिन असहनीय नहीं। पश्चिम से आए लोगों के लिए यह किसी बड़े म्यूजिक फेस्टिवल या व्यस्त टाइम्स स्क्वायर जैसा अनुभव हो सकता है। 

जैसे ही आप नदी किनारे रेत पर पहुंचते हैं, माहौल बदल जाता है। हर हर महादेव! और जय श्री राम! के जयकारे गूंजने लगते हैं। रेत पर कदम रखते ही माहौल में उत्सव का भाव महसूस होता है। हवा में ठंडक, नमी और सरकंडों की हल्की सी सुगंध घुली रहती है। जब मुझे एहसास हुआ कि मैं आखिरकार संगम के पास पहुंच चुका हूं, तो मेरी आंखें नम हो गईं। यह पल मेरी उम्मीदों से कहीं अधिक भावुक था।  

1 फरवरी: प्रयागराज
इतनी ज्यादा भीड़ के बावजूद मेले के मुख्य क्षेत्र की साफ-सफाई तारीफ के काबिले है। हालांकि इसे पूरी तरह से स्वच्छ कहना सही नहीं होगा। हर शाम कई घाटों पर आरती होती है। मैंने अरैल घाट पर परमार्थ निकेतन की आरती में हिस्सा लिया। भजन गाने के बाद साध्वी भगवती ने हिंदी और अंग्रेज़ी में पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ कुंभ के संदेश को आध्यात्मिकता से जोड़ते हुए समझाया। उन्होंने प्लास्टिक का उपयोग कम करने की अपील की। मैंने सोचा, इतने बड़े मेले में बाहरी शांति की अपेक्षा करना कठिन है इसलिए यह शांति शायद आंतरिक अनुभव से ही संभव हो सकती है।  

2 फरवरी: प्रयागराज
इस दिन मैंने जूना अखाड़े के शिविर का दौरा किया और कई साधुओं के साथ समय बिताया। भले ही इनका स्वरूप कभी-कभी डरावना लगे, लेकिन इनका स्वभाव बहुत शांत और सरल था। खासकर रुद्राक्ष बाबा के पास बैठकर शिव भजन गाते समय एक अनोखी शांति का अनुभव हुआ। कई लोग आशीर्वाद लेने और सिर पर मोरपंख से स्पर्श कराने के बाद आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन मेरे लिए इन साधुओं के पास बैठकर उनके जीवन को करीब से देखना कहीं अधिक महत्वपूर्ण था।

3 फरवरी: प्रयागराज
आज कुंभ को अलविदा कहने का दिन है। यह आध्यात्मिक उत्थान और उत्सव का अनुभव था। लगातार चलते रहना शारीरिक रूप से थका देने वाला था, लेकिन इसका अपना महत्व है। यह देखना प्रेरणादायक था कि कैसे सीमित संसाधनों वाले लोग भी इतनी लंबी यात्रा करके महज कुछ क्षणों के स्नान और ध्यान के लिए यहां आते हैं। यही वह निरंतर मानव धारा है जो कुंभ मेले को इतना विशाल और विशेष बनाती है।  

(लेखक हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन में सीनियर डायरेक्टर (कम्युनिकेशंस) हैं।) 

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