डॉ. अर्चना अरुल
संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्यों में से चौथा लक्ष्य है- समावेशी एवं न्यायसंगत गुणवत्तापरक शिक्षा सुनिश्चित करना और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सतत प्रगति का सबसे बेहतरीन मानक है क्योंकि यह एक ऐसे सभ्य समुदाय की नींव रखती है जो सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से जागरूक हो और बेहतर भविष्य की दिशा में योगदान दे। यहां समावेशी और न्यायसंगत शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिनसे एक प्रासंगिक प्रश्न उठता है: क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सभी के लिए सुलभ है?
नॉर्थ ईस्ट रीजनल सेमिनार एक ऐसा ही अनूठा आयोजन है। भारत के सिक्किम में तीन दिवसीय इस सेमिनार का आयोजन स्कूल लीडरशिप एकेडमी (एसएलए) एससीईआरटी सिक्किम की तरफ से नेशनल सेंटर फॉर स्कूल लीडरशिप (एनसीएसएल) एनआईईपीए नई दिल्ली के सहयोग से आयोजित किया गया था। इसमें 37 स्कूलों के प्रधानाध्यापकों और आठ पड़ोसी राज्यों के प्रभारियों को एक मंच पर आने का अवसर मिला था। आयोजकों का कहना है कि इस तरह का कोई कार्यक्रम पहले आयोजित नहीं हुआ था, कम से कम देश के इस हिस्से में तो नहीं।
कार्यक्रम में उपस्थित प्रतिभागियों ने समय-समय पर अपने-अपने स्कूलों में बदलाव की कहानी और चुनौतियों के बारे में बताया। उन्होंने बुनियादी ढांचा तैयार करने, शिक्षकों व संसाधनों की कमी, प्रवेश, आर्थिक व अन्य परिस्थितियों के कारण छात्रों द्वारा स्कूल छोड़कर जाने की कहानियां साझा कीं। उन्होंने जो अनुभव साझा किए, वे शायद कुछ ऐसे थे जिन्हें देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले कई लोग शायद न समझें। जो लोग लंबे समय तक इन क्षेत्रों में रह हैं, वही छात्रों और शिक्षकों के सामने आने वाली इन कठिनाइयों को समझ सकते हैं।
घूमने के इरादे से आया कोई व्यक्ति या कोई पर्यटक यह जानकर हैरान हो सकता है कि इन रमणीय पहाड़ों और जंगलों में रहने वाले ग्रामीण छात्रों को स्कूल जाने के लिए कैसी कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। इन इलाकों का भूगोल इतना अप्रत्याशित है कि किसी भी समय भूस्खलन, फ्लैश फ्लड जैसी आपदा आ सकती है। अंतरराष्ट्रीय सीमा के नजदीक होने की वजह से कभी भी संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है। अन्य परेशानियां तो हैं ही। कोरोना महामारी के दौरान जब अधिकतर जगहों पर स्कूल कॉलेज ऑनलाइन संचालित हो रहे थे, यहां के स्कूल ऐसा नहीं कर पा रहे थे। वजह - एक तो मोबाइल फोन ही बहुत कम थे। दूसरे या तो इंटरनेट कनेक्शन ही नहीं थे, अगर थे भी तो बेहद खराब।
मौसम की चरम स्थितियों में जब बच्चों के माता-पिता खेतों में काम करते हैं या मवेशियों को चराने के लिए बाहर जाते हैं, तो मासूम उम्र में ही उन्हें अपने भाई-बहनों की देखभाल करनी होती है। ऐसी ही बाहरी कारणों की वजह से लोग अपने बच्चों के छोटी उम्र में ही शादी कर देते हैं। क्लासरूम और खेल के मैदान की कमी, शिक्षकों की कमी, बिजली-पानी की कमी जैसी आंतरिक चुनौतियां अलग हैं।
इन चुनौतियों से पार पाने वाले लोगों की कामयाबी की कई अनसुनी कहानियां कार्यक्रम में सामने आईं। कुछ स्कूलों ने स्थानीय अधिकारियों, समुदायों और अन्य लोगों के साथ मिलकर सहयोगपूर्ण जिम्मेदारी से काम किया और स्कूलों में कामकाज को सुचारू बनाने में मदद की। स्कूली बच्चों का समय समय पर स्कूलों में आने वाले और मदद करने वाले स्थानीय विधायकों के लिए मुस्कुराते और खुश होते देखना वाकई दिल को छू लेने वाला था। एक स्कूल ने तो सैन्य इलाके तक अपना विस्तार किया और अभी भी वहां दो कक्षाएं संचालित कर रहा है।
तमाम मुश्किलों के बावजूद इन स्कूलों में कुछ चीजें समान थीं। इन सभी में खुद तैयार किया गया जैविक रसोईघर था, जिसका इस्तेमाल स्कूल में मिड डे मील की जरूरत को पूरा करने के लिए किया जाता है। स्कूलों में प्रदान किया जाने वाला मिड-डे मील कई गरीब बच्चों को स्कूल तक आने के लिए एक प्रेरक शक्ति का काम करता है। इन स्कूलों में महत्वपूर्ण तारीखों और पड़ावों का जश्न भी जोरशोर से मनाया जाता है।
एनसीएसएल एनआईपीईए, नई दिल्ली की सहायक प्रोफेसर डॉ. कश्यपी अश्वथी का कहना है कि अधिकतर निजी स्कूलों को उनकी उपलब्धियों के लिए पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं, लेकिन इन सरकारी स्कूलों को ऐसी लाइमलाइट शायद ही कभी मिलती हो। हालांकि इनके शिक्षकों, छात्रों और समुदाय के प्रयास भी कोई कम सराहनीय नहीं होते। हमें उनकी कहानियां सुननी चाहिए और उनकी सराहना करनी चाहिए। लंबे समय से इसकी जरूरत महसूस हो रही है। डॉ. कश्यपी ने प्रतिभागियों को '2024 का शानदार बैच' कहकर संबोधित किया और शिक्षकों के योगदान का सामूहिक उत्सव मनाने का आग्रह किया।
(डॉ. अर्चना अरुल एसआरएम विश्वविद्यालय, सिक्किम में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं)
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