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असरानी: भारतीय सिनेमा में हास्य की अमर विरासत का अंत

असरानी ने हास्य के साथ-साथ चरित्र अभिनय में भी अपनी क्षमता दिखाई। हास्य और भावनाओं के बीच उनका सहज अभिनय उन्हें अद्वितीय बनाता था।

असरानी (फाइल फोटो) / image provided

20 अक्टूबर को भारत के लोकप्रिय हास्य अभिनेता और निर्देशक गोवर्धन असरानी का निधन हो गया। 84 वर्ष की आयु में उनका जाना भारतीय सिनेमा के लिए एक युग के अंत जैसा है। असरानी ने 350 से अधिक फिल्मों में अपनी अदाकारी से दर्शकों का दिल जीता और हास्य कला में एक स्थायी छाप छोड़ी। उनका अभिनय सरल, विनम्र और स्वाभाविक था, जिसमें व्यंग्य और कटुता की कमी साफ झलकती थी।

असरानी का जन्म जयपुर, राजस्थान में हुआ। उन्होंने फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) से प्रशिक्षण प्राप्त किया, जहां से देश के कई प्रमुख कलाकारों ने अपने करियर की शुरुआत की। फिल्मों जैसे बावर्ची, चुपके चुपके, और आज की ताज़ा खबर में उनका हास्य दर्शकों के बीच लोकप्रिय हुआ। 1973 में उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। लेकिन असरानी का सबसे यादगार किरदार शोले (1975) में जेलर का था, जिसमें उनकी पंक्ति 'हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं' आज भी लोगों के जहन में बसी है।

असरानी ने हास्य के साथ-साथ चरित्र अभिनय में भी अपनी क्षमता दिखाई। हास्य और भावनाओं के बीच उनका सहज अभिनय उन्हें अद्वितीय बनाता था। उनकी पत्नी, मंजू असरानी, उनके हर संघर्ष और सफलता में उनका साथ देती रहीं।

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हिंदी सिनेमा में कॉमेडी समय के साथ बदलती रही है। 1950-60 के दशक में जॉनी वॉकर का 'नशेड़ी दार्शनिक' किरदार और मेहमूद का बहुमुखी हास्य दर्शकों को खूब भाया। केश्तो मुखर्जी ने मदहोशी को कला का रूप दिया, जबकि असरानी ने शारीरिक हास्य और स्थितिजन्य हास्य के बीच का पुल बनाया। बाद में कादर खान और जॉनी लीवर ने भाषाई हास्य और सामाजिक व्यंग्य को आगे बढ़ाया।

1970 के दशक में हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी जैसी फ़िल्मकारों ने स्थितिजन्य हास्य को बढ़ावा दिया, जो मध्यम वर्ग की जिंदगी और रोजमर्रा की परिस्थितियों पर आधारित था। गुड्डी (1971) और बावर्ची (1972) जैसी फिल्मों ने दर्शकों को अपने जीवन की छोटी-छोटी विसंगतियों पर हंसना सिखाया।

1980 में जाने भी दो यारों (1983) और पुष्पक (1987) जैसी फिल्में हास्य की नई परिभाषा लेकर आईं। 1990 के दशक में गोविंदा–डेविड धवन की कॉमेडी ने शब्दों और हास्यपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम से भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को दर्शाया। 2000 के दशक में हीरा फेरी (2000) और मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. (2003) जैसी फिल्मों ने 'फील-गुड' हास्य को लोकप्रिय बनाया।

हालांकि, वर्तमान में बॉलीवुड की कई कॉमेडी फिल्में केवल स्लैपस्टिक और मोटे मजाक तक सीमित हो गई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, हास्य की बुद्धिमत्ता और सूक्ष्मता अब कम हो गई है। असरानी ने हमेशा यह सिखाया कि सच्ची कॉमेडी मजाक में नहीं, बल्कि जीवन की विसंगतियों को देखने और उस पर हंसने में है। उनका जाना भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में एक अध्याय का समापन है। उनका हास्य सरल, सहज और सजीव था — एक ऐसे समय का प्रतीक जब हास्य मानवतापूर्ण और कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती थीं।

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