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आतंकवाद : मुक्ति की मौखिक कामना!

अगर बात आतंकवाद के सरपरस्तों की है तो इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि अमेरिका पर आतंकी हमला करने वाले को 'महाबली' ने उसी की धरती पर जाकर ढेर किया था। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में जाकर मिट्टी में मिलाया था।

सांकेतिक तस्वीर / AI

इस महीने के प्रथम पक्ष में आतंकवाद के खिलाफ भारत ने जिस जंग का ऐलान किया था वह युद्ध विराम के चलते थम अवश्य गई है मगर जारी रहने वाली है। कम से कम भारत की ओर से तो जरूर क्योंकि वह आतंकवाद की आग में बरसों से जल रहा है और अपने हजारों निर्दोष नागरिकों को खो भी चुका है। आतंकवाद का जितना खामियाजा भारत ने उठाया है, दुनिया के किसी अन्य देश ने न उठाया होगा। इसी दृष्टि से भारत की ओर से आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान और उसके कब्जे वाले कश्मीर में लक्षित हमला सटीक रहा और एक तरह से उसका 'तात्कालिक प्रतिशोध' भी पूरा हुआ। मगर दहशतगर्दी के जिस दंश को दुनिया झेल रही है उस लड़ाई का निर्णायक दिशा न पकड़ना खेदजनक है। भारत-पाकिस्तान के बीच टकराव का रुक जाना और वक्त रहते समग्र युद्ध में परिवर्तित न होना अच्छी बात है किंतु आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तब उसको पोषित करने वालों का पहले सफाया न किया जाए। जब दाना-पानी नहीं मिलेगा तो आतंकवाद का राक्षस भी दम तोड़ देगा। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। आतंकवाद से मुक्ति की कामना मौखिक तौर पर तो की जा रही है लेकिन उसे धरती से उखाड़ने के सामूहिक प्रयास कहीं दिखाई नहीं देते।
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न जाने कितने प्रश्न हैं जो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम की इस घड़ी में उभर रहे हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो युद्ध विराम को लेकर ही है। युद्ध विराम पर भारत का रुख अलग है, पाकिस्तान का दावा कुछ और है और अमेरिका की मुनादी कुछ और ही साबित करना चाह रही है। भारत का कहना है कि पाकिस्तान ने उससे हमले रोकने का आग्रह किया था, जिसे उसने माना। वहीं, इस पूरे प्रकरण में शुरुआत में न-न करने वाला अमेरिका अचानक से 'निर्देशक' की भूमिका में आ गया। अमेरिका के आगे आने से भारत का दावा संदेह में घिर गया और भारत का कथन अमेरिकी दावे को नाकाबिले-यकीन बना रहा है। तो फिर युद्ध विराम कैसे हुआ, यह अगला सवाल है। हर कोई सच जानना चाहता है। आखिर बढ़ते टकराव को किसने रोका। यह दोनों देशों की मर्जी या मजबूरी थी अथवा अमेरिका का दबाव। यह तो एक तरह से सियासत हो गई कि कुछ पता ही नहीं चल रहा कि परमाणु-संपन्न दो चिर-प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे के खिलाफ मैदान और आसमान में आग उगलते-उलगते अचानक शांत कैसे हो गये। यह भी सही है कि युद्ध विराम हो गया है लेकिन असमंजस, संदेह, एक अनजाना भय और घात-प्रतिघात का माहौल पड़ोसियों के बीच और उनके अवाम में बना हुआ है। आग बुझी नहीं, अंदर धधक रही है। ऐसे में सुकून कैसे संभव है यह सबसे अहम प्रश्न है।

जहां तक आतंकवाद की बात है तो पहलगाम हमले की दुनिया के लगभग सभी देशों ने निंदा की। यहां तक कि चीन ने भी, मगर खुलकर साथ पाकिस्तान का दिया। तुर्की और अजरबैजान भी पाकिस्तान के साथ दिखे। और दुर्भाग्य देखिए आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक जंग शुरू करने वाले भारत के साथ कोई भी मुल्क खुलकर आवाज बुलंद करता न दिखा। जब आप आतंकी घटना की निंदा करते हैं तो उसको पनाह देने वाला उससे भी बड़ा गुनहगार हुआ। आतंकवाद के खिलाफ नतीजे वाली लड़ाई में यूं भारत का अकेले पड़ जाना दुनिया की संवेदनशीलता और उसके इरादों पर बड़ा सवाल है। सवाल है कि क्या दुनिया वाकई आतंकवाद से मुक्ति चाहती है। अगर हां तो फिर सब अपनी-अपनी जंग अकेले क्यों लड़ रहे हैं। मंच पर साथ रहे वाले जमीन पर साथ क्यों नहीं हैं। अगर बात आतंकवाद के सरपरस्तों की है तो इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि अमेरिका पर आतंकी हमला करने वाले को 'महाबली' ने उसी की धरती पर जाकर ढेर किया था। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में जाकर मिट्टी में मिलाया था। तो आतंकवाद की सरपरस्ती को लेकर संदेह कैसा!  

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