राष्ट्रपति ट्रम्प ने पूरी दुनिया पर टैरिफ का जो चाबुक चलाया है उससे मचा हाहाकार अपने आप में कम नहीं है, किंतु दूसरी पारी की आव्रजन-वीजा नीति इस कोलाहल में गहरे वार कर रही है। ऐसे वार जिससे लोगों की सोच बदल रही है। खास तौर से अमेरिका में पढ़ाई करके वहां अपने सपनों को साकार करते हुए स्थायी रूप से रहने की आकांक्षा नई नीतियों की दीवारों से टकराकर दम तोड़ रही है। भारतीय भी इन असमंजस भरे हालात से जूझ रहे हैं। बरसों से पाले सपने को अमेरिका में जाकर पूरा करना लगातार दूभर होता जा रहा है। स्थिति सबके सामने हैं और आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। सरकारी आंकड़ों से ही पता चलता है कि मार्च से मई 2025 के बीच भारतीय छात्रों को मिलने वाले F-1 स्टूडेंट वीजा में 27 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट कोरोना महामारी के बाद किसी भी साल के मुकाबले सबसे धीमी शुरुआत मानी जा रही है। एक और उदाहरण। पर्यटन, शिक्षण या यहां आकर काम करने वाले भारतीय नागरिकों को भी जल्द ही वीजा संबंधी लागतों में बढ़ोतरी का सामना करना पड़ेगा। साल 2026 से 'वन बिग ब्यूटीफुल बिल' के तहत अधिकांश गैर-आप्रवासी वीजा कैटेगरी पर 250 डॉलर का एक नया 'वीजा इंटीग्रिटी चार्ज' लगाया जाएगा। इस पर 4 जुलाई को अमेरिकी राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर चुके हैं। अब यह कानून है। इस सबके बीच इस तरह की खबरें राहत देने वाली या आशावाद को जन्म देने वाली हो सकती हैं कि फोर्ब्स की 2025 की 'अमेरिका के सबसे अमीर प्रवासी' सूची में भारतीय मूल के 12 अरबपति शामिल हैं। देशों के लिहाज से यह संख्या सर्वाधिक है। लेकिन जिन 12 लोगों ने फोर्ब्स की इस सूची जगह बनाई है वे 'पुराने' अमेरिका के हैं। फोर्ब्स की यह सूची आज की पीढ़ी को देर तक दिलासा नहीं दे सकती क्योंकि हालात बदल गए हैं। आज अमेरिका आ गये तो समझो भाग्यशाली, लेकिन हर चीज की कीमत अधिक चुकानी होगी।
इन हालात में कम से कम अमेरिका को पढ़ाई और पेशेवर उन्नति का लगातार लक्ष्य बनाए रखना कठिन है। शासन की सख्त नीतियां पहले ही गिरावट की तस्वीर पेश कर रही हैं। यह सही है कि ट्रम्प की तमाम नीतियों को लेकर अमेरिका में भी हंगामा मचा हुआ है, विरोध भी सामने आया है लेकिन किसी भी देश का कोई भी छात्र ऐसे देश क्यों जाना चाहेगा जहां कभी भी कुछ भी हो सकता है। ऐसे में कोई भी छात्र, भले ही भारतीय, ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया या कनाडा जाने की ही क्यों नहीं सोचेगा। अगर एक छोटे से प्रतिशत को छोड़ दें तो अधिकांश भारतीय छात्रों की जो आर्थिक पृष्ठभूमि है वह जोखिम उठाने की इजाजत ही नहीं देती। बहुत से छात्र या लोग ऐसे हैं जो दूसरे देश या अमेरिका जाकर भारत में अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को संभालने की कोशिश करते हैं। बीते 10 सालों से भारतीय अपने देश पैसा भेजने के मामले में दुनिया में अव्वल हैं। यह पैसा संभ्रांत वर्ग नहीं भेजता श्रमिक वर्ग भेजता है। जाहिर है कि आव्रजन नीतियों का असर छात्र से लेकर मजदूर तक पर पड़ रहा है। और इसमें डराने वाली बात यह कि पता नहीं ट्रम्प कब किस बात से नाराज हो जाएं। और हो गए तो सबको पता चल रहा है कि वो क्या करते हैं।
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