पाकिस्तान में चुनाव तो हो गये पर जो नतीजा निकला उसके बाद अधिकांश लोगों की जुबान पर एक ही सवाल है। क्या यही होना था? पैसों से मोहताज एक मुल्क में उस चुनाव पर इतना खर्च कर दिया गया जिसका कोई साफ नतीजा नहीं निकला। सच कहा जाए तो इस तरह से पैसों की बर्बादी पाकिस्तान झेल ही नहीं सकता। चुनाव में हिंसा भी हुई और कई लोग मारे गये। खून बहने के बाद भी नतीजों को पचा पाना मुश्किल है। जेल में बैठे इमरान खान समर्थित आजाद उम्मीदवार सबसे ज्यादा सीटें (101) जीते। दूसरे पर नवाज शरीफ और फिर बिलावल की पार्टी रही।
अब पता नहीं खान की किस्मत में क्या है मगर उनके निर्दलीय सरकार नहीं बना सकते। इसलिए कि वे बिखरे हुए हैं, उनका कोई एक मंच नहीं है। उन्हे किसी के साथ जाना होगा। या तो सामूहिक रूप से या अलग-अलग। मगर लग रहा है कि यह 29 फरवरी की डेडलाइन से पहले ऐसा होन वाला नहीं है। उधर, प्रधानमंत्री पद की जोर-शोर से मांग करने के बाद भुट्टो स्पष्ट रूप से पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज शरीफ गुट) को अपना समर्थन देने के लिए तैयार हो गए हैं।
इसी बीच इमरान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ दावा कर रही है कि अगर जोड़-तोड़ नहीं किया गया होता तो कई और निर्दलीय उम्मीदवार उनके पाले में होते। अभी यह भी देखा जाना बाकी है कि क्या निर्दलीय एक पार्टी के रूप में एक साथ आने का फैसला करते हैं और क्या इसे चुनाव आयोग द्वारा मान्यता दी जा सकती है।
इन हालात में एक बुनियादी आकलन यह है कि पाकिस्तान के लोगों ने जनरलों को संदेश भेजकर कहा है कि उनकी 'नागरिक आशा' को दूसरे और तीसरे स्थान पर धकेल दिया गया है। लेकिन इससे पहले कि कोई जश्न शुरू हो पाकिस्तानियों को पिछले 76 वर्षों के राजनीतिक ट्रैक रिकॉर्ड के बारे में भी पता चल गया है। तीन या इतने दशकों तक सीधे नियंत्रण के अलावा शेष वर्षों में 'वर्दी वालों' का अपना प्रभाव रहा है।
सेना के खिलाफ अपने तमाम बयानों के बावजूद इमरान खान जानते हैं कि 2018 में वे खुद सेना के समर्थन से सत्ता सुख हासिल कर चुके हैं। शरीफ भी इस सच का अहसास है कि उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में अपनी कुर्सी बचाकर रखने के लिए जनरलों के आशीर्वाद की आवश्यकता है। और ऐसा हो इसके लिए एक नागरिक नेता को दो काम करने होंगे। पहला सैन्य अधिग्रहण के लिए रजामंदी और दूसरा सीमा पार आतंकवादी गतिविधियों के लिए असीमित खर्च। निसंदेह यह सब पाकिस्तान के आतंकवाद का 'पीड़ित' होने की झूठी आड़ में हो रहा है जिसे नेता और सेना खुले तौर पर नहीं कह सकते।
1849 में फ्रांसीसी उपन्यासकार जीन-बैप्टिस्ट अल्फोंस कार की एक उक्ति है- जितनी अधिक चीजें बदलती हैं, उतनी ही समान रहती हैं। लेकिन पाकिस्तान में चीजें उस दुखद स्थिति में पहुंच गई हैं कि न तो सेना और न ही नागरिक इस पर विश्वास कर सकते कि चीजें वैसी ही रहती हैं तो ठीक है। देश आर्थिक रूप से संकट में है और लड़खड़ा रहा है। इसलिए क्योंकि पहचान वाले ऋणदाता उनकी जेबों में पैसा डालने को तैयार नहीं हैं। तमाम आशंकाओं के बीच इस समय राजनीतिक रूप से घायल जनरलों को जिस आखिरी चीज की जरूरत है वह है बैरक से बाहर आकर एक अनजाना निमंत्रण।
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